Today’s Editorial (Hindi)
अस्तित्व अनंत और सीम। हम मनुष्य इसी की विभाज्य इकाई हैं। अस्तित्व की प्रतिकूलता विषाद है और अनुकूलता प्रसाद। इकाई और अनंत की प्रीति में आनंद है। अनंत से इकाई का संवाद ही प्रार्थना है।अस्तित्व वैयक्तिक भगवान या ईश्वर नहीं है। वह प्रत्यक्ष है और जो प्रत्यक्ष है वह अंधविश्वास नहीं होता। भारत की सर्वोच्च न्यायपीठ ने केंद्रीय विद्यालयों में प्रतिदिन होने वाली प्रार्थना पर रोक लगाने संबंधी एक याचिका विचारार्थ स्वीकार की है। कोर्ट ने सरकार को पक्ष रखने के लिए चार हफ्ते का समय देकर पूछा है कि केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना क्यों होनी चाहिए? याचिका के नुसार संस्कृत और हिंदी प्रार्थना से छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में बाधा आ रही है। ईश्वर और हिंदू धार्मिक आस्था की प्रार्थना सेक्युलर राज्य द्वारा प्रायोजित किए जाने को प्रश्नवाचक बनाया गया है। मुकदमे को विचारार्थ स्वीकार करना न्यायालय का संवैधानिक धिकार है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट परिसर में ही प्रधान न्यायाधीश के कक्ष के पास संस्कृत में ही ‘यतो धर्मस्य धर्मस्ततो जय:’ ध्येय वाक्य लिखा हुआ है।
महाभारत से उद्धृत इस वाक्य का अर्थ सुस्पष्ट है कि ‘जहां धर्म है, वहीं विजय है।’ कोर्ट ने धर्म संबंधी याचिका पर नोटिस जारी करते समय संभवत: अपने ही इस निष्कर्ष सूत्र पर ध्यान नहीं दिया। संस्कृति निरपेक्ष नहीं होती। प्रत्येक संस्कृति का अपना दर्शन होता है। हरेक संस्कृति की एक सभ्यता होती है। सभ्यता को समाज की देह कहा जाता है और संस्कृति को सभ्यता का प्राण। सभ्यता और संस्कृति से मिलकर एक जीवनशैली का विकास होता है। भारत में इसी जीवनशैली का नाम धर्म है। भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म का जन्म किसी देवदूत की घोषणा से नहीं हुआ। दुनिया के अन्य देशों में मत मजहब या पंथ की घोषणाएं हुईं। ईश्वर भी घोषणा का भाग था। भारत में इसके उलट पहले तर्क प्रतितर्क आधारित दर्शन का विकास हुआ। यहां अतिरिक्त जिज्ञासा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के बाद धर्म का विकास हुआ।
इसलिए यहां के धर्म परायण लोग अंधविश्वासी या बिलीवर नहीं खोजी हैं। धर्म यहां शोध और बोध का तत्व रहा है। लोकसभा मंडप में अध्यक्ष के आसन के पीछे ‘धर्म चक्र प्रवर्तनाय’ लिखा हुआ है। क्या इस सुंदर वाक्य का कोई धर्मविहीन दूसरा विकल्प हो सकता है? संसद भवन ऐसे सूक्तों से समृद्ध है। संसद के केंद्रीय कक्ष के द्वार संख्या एक की ओर बढ़ते हुए पंचतंत्र (5.38) का सूक्त अंकित है, ‘यं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम/उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम-यह मेरा है, यह पराया सोचने वाले संकीर्ण बुद्धि के हैं, उदारमना के लिए यह पूरी पृथ्वी एक परिवार है।’ यह संस्कृत में है। फिर लिफ्ट संख्या एक के पास सभा की संरचना के बारे में स्वर्ण जैसे चमकते अक्षरों में महाभारत का ही सुंदर वाक्य हैं ‘न सा सभा यत्र न संति वृद्धा/ वृद्धा न ते यो न वदंति धर्मम्। धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति- वह सभा सभा नहीं जहां वृद्ध न हों। वे वृद्ध वृद्ध नहीं हैं जो धर्मनिष्ठ न हों। वह धर्म धर्म नहीं जो सत्य नहीं है।’ ऐसे ही नेक सूक्त आज भी प्रेरक हैं। क्या इन्हें सिर्फ इसलिए हटाया जा सकता है कि वे संस्कृत में हैं? या हिंदू उन्हें आदर देते हैं।
मूलभूत प्रश्न है कि क्या सर्वोच्च न्यायपीठ और सर्वोच्च विधायी संस्था संसद भवन के अंतरंग से संस्कृत और प्राचीन संस्कृति की सतत् प्रवाही धारा को सेक्युलरी रंग रोगन से खारिज किया जा सकता है?आखिर प्राचीन भारतीय परंपरा से ऐसी शत्रुता के मूल कारण क्या हैं? क्या सेक्युलर पंथ के पास ऐसे ही मार्गदर्शी शाश्वत सूक्त हैं? उनकी प्रेरणा के सूत्र हैं क्या? संविधान भारत का राजधर्म है। संविधान सभा भारतीय जनगणमन से सुपरिचित थी। संविधान की हस्तलिखित प्रति में भारतीय संस्कृतिमूलक 23 चित्र उकेरे गए थे। मुखपृष्ठ पर श्रीराम और श्रीकृष्ण। भाग एक में सिंधु सभ्यता की मोहरों के चित्र और भाग दो में वैदिककालीन गुरुकुल आश्रमों की स्मृति। मौलिक धिकार वाले अंश में श्रीराम की लंका विजय, नीति निदेशक वाले अंश में श्रीकृष्ण और जरुन के गीता संवाद की झांकी।
फिर बुद्ध और महावीर और फिर सम्राट शोक। फिर गुप्तकाल, विक्रमादित्य, नालंदा विश्वविद्यालय, ओडिशा का स्थापत्य, भाग 12 में नटराज, 13 में गंगावतरण 14 में मुगल स्थापत्य, 15 में शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह, 16 में महारानी लक्ष्मीबाई, 17 व 18 में गांधीजी की दांडी यात्र व नोआखाली शांति मार्च फिर नेताजी सुभाषचंद्र बोस और अंत में हिंद महासागर। संविधान पारण के बाद अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने कहा, ‘अब सदस्यों को संविधान की प्रतियों पर हस्ताक्षर करने हैं। हस्तलिखित अंग्रेजी की प्रति में कलाकारों ने चित्र बनाए हैं।’ क्या श्रीराम और श्रीकृष्ण को इस चित्रंकन में सम्मिलित करना सेक्युलर विरोधी है?
गुरु गोविंद सिंह या शिवाजी के बारे में कथित सेक्युलर मित्रों की राय क्या है? क्या उनके पास भारत के लिए कोई मार्गदर्शी सूक्त हैं? भारतीय राष्ट्र राज्य के प्रतीक चिन्ह में तीन शेरों व चक्र के नीचे‘सत्यमेव जयते’ छपा रहता है। यह भी संस्कृत में है। यह उत्तर वैदिक कालीन मुण्डकोपनिषद् में आया है ‘सत्यमेव जयते नानृतं-सत्य की विजय होती है, झूठ की नहीं।’ संस्कृत और वैदिक धर्म का सूत्र होने के कारण याचिकाकर्ता की राय इसके भी विरोध में होगी। सेक्युलर राज्य द्वारा वैदिक मंत्रों को प्रतीक चिन्ह का भाग बनाना उन्हें कैसे मंजूर होगा? दोनों हाथों से दीपक की लौ को बुझने से रोकने के प्रयास वाला भारतीय जीवन बीमा निगम का प्रतीक चिन्ह ध्यान देने योग्य है। इसके ठीक नीचे गीता से श्रीकृष्ण का ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ आश्वासन भी संस्कृत में छपता है। इसका क्या करेंगे?
संस्कृत और संस्कृति को भारतीय लोकजीवन से हटाने का काम संभव है। उपनिषदों में प्रार्थना है- तमसो मा ज्योतिर्गमय-हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। किससे प्रार्थना है? ऋषि ने सूत्र में यह बात नहीं कही। यहां ईश्वर या भगवान नहीं है। ऋषि निश्छल प्रकाश भीप्सु है। ऋग्वेद, थर्ववेद में ‘जीवेम शरद: शतं’-100 शरद जीवन की भिलाषा है। यहां भी कोई याचना नहीं। प्रार्थना में अभिलाषा का प्रगाढ़ होना पर्याप्त है। प्रार्थना सक्रियता लाती है। प्रार्थना में संकल्प भाव होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इच्छा को प्रेरक मानते हैं। मनुष्य पूरे मन से जैसा सोचता है, उसकी शक्तियां उसी प्राप्ति में जुट जाती हैं।
यजुर्वेद के एक सुंदर मंत्र में मन: शक्ति को समृद्ध बनाने की प्रार्थना है ‘जो मेरा मन यहां, वहां, वन पर्वत या दूरस्थ क्षेत्रों की ओर भागा करता है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्प से भर जाए। ’यहां मन: शक्ति के संवर्धन की अभिलाषा है। वैज्ञानिक आज यह बात मान रहे हैं। मुण्डकोपनिषद् के नुसार हम जो कुछ चाहते हैं, हमें वही सब मिलता है। ’मनोविज्ञान की यह अनुभूति हिंदू संस्कृति का ही आख्यान है।संस्कृत साहित्य में जबर्दस्त इहलोकवाद है। हिंदू संस्कृति की भिव्यक्ति भी इसी भाषा में हुई है। ऋग्वेद में ‘नमस्कार’ को देवता बताकर नमस्कार किया गया है। क्या सेक्युलर मित्र बच्चों को नमस्कार से भी रोकने के इच्छुक हैं। ऐसे मित्रों को दूर से ही नमस्कार है।
स्रोत: द्वारा हृदयनारायण दीक्षित: दैनिक जागरण