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वक्त के साथ मात खा गया मार्क्स्वाद

कार्ल मार्क्स यदि जीवित रहते तो दो सौ वर्ष के हो जाते। आज मार्क्स हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके विचार दुनिया भर में फैल गए हैं। शायद ही कोई देश हो जहां कम्युनिस्ट पार्टी न हो। मनुष्य की अमरता इसी में है। वह जीता एक पीढ़ी भर है, परंतु आने वाली सभी पीढ़ियों के लिए विचार और कर्म की सामग्री छोड़ जाता है। आधुनिक युग के ऐसे विचारकों में डार्विन, फ्रायड, मार्क्सस और गांधी का नाम शीर्ष पर जगमगाता है। मार्क्स की कल्पना के अनुसार, अभी तक पूरी दुनिया में मार्क्सीवाद आ जाना चाहिए था। मार्क्स  एक क्रांतिकारी थे, लेकिन उनके समय में किसी भी देश में क्रांति नहीं हो सकी। मार्क्स की मान्यता थी कि सबसे पहले क्रांति उस देश में होगी, जहां पूंजीवाद सबसे ज्यादा विकसित होगा।

 

इसे समझाने के लिए उन्होंने जंजीर का उदाहरण दिया था जो टूटती है तो उस बिंदु पर जहां वह सबसे ज्यादा कमजोर होती है, लेकिन पूंजीवाद की जंजीर अलग किस्म की होती है। वह जितनी मजबूत होगी, वहां शोषण उतना ही ज्यादा होगा। इसलिए सर्वहारा की संख्या उतनी ही ज्यादा होगी। विद्रोह करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी सर्वहारा वर्ग की है। वह स्वयं को पूंजी के जाल से मुक्त करेगा और पूंजीपति को भी मुक्त कराएगा। इसके बाद समाजवादी समाज बनेगा जिसमें सभी बराबर होंगे। चूंकि मार्क्स के जीवन काल में इंग्लैंड का पूंजीवाद सबसे बढ़ा-चढ़ा था, इसलिए संभावना यही थी कि वहीं सबसे पहले क्रांति होगी। लेकिन यह नहीं हो पाया तो इसमें मार्क्स का कोई दोष नहीं था।

 

मार्क्स के समय तक इतिहास स्थिर नहीं हुआ था। वह निरंतर बढ़ रहा था। उपनिवेशों का विस्तार हो रहा था जहां से चूस कर लाया गया धन पूंजीवादी देशों के मजदूरों के जीवन स्तर में वृद्धि कर रहा था। नए-नए वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे थे जिससे मशीनों और मजदूरों की उत्पादकता बढ़ रही थी और इसके साथ ही उनका वेतन भी। औद्योगिक सर्वहारा भी पहले की तरह कमजोर नहीं रह गया था। श्रमिक यूनियनों में संगठित होकर कारखाना मालिकों से मोलभाव कर सकता था। अमेरिका की खोज हो गई जिसने यूरोप को समृद्ध बनाया। इसलिए जहां-जहां भी पूंजीवाद आगे बढ़ा वहां के मजदूरों के रहन-सहन का स्तर सुधरता गया और क्रांति की संभावना क्षीण होती गई। आज स्थिति यह है कि दुनिया के एक बड़े हिस्से में मजदूर मध्यवर्गीय जीवन जी रहा है और कोई भी उससे क्रांति की उम्मीद नहीं करता।

 

इतिहास बल्कि मार्क्स की अवधारणा के उलटी दिशा में चला। जहां-जहां पूंजीवाद कमजोर है, वह मजदूरों को उचित वेतन नहीं दे सकता, पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं किए जा सकते, ज्यादातर लोग खेती पर निर्भर होते हैं, जिनकी आय में अपेक्षित वृद्धि नहीं होती, वहां-वहां मार्क्संवाद जीवित दिखाई देता है। मार्क्सावाद वास्तव में वही था जो मार्क्स  ने धर्म के बारे में लिखा है, ‘धर्म उत्पीड़ित प्राणी का उच्छवास है, एक हृदय-विहीन दुनिया का हृदय है, आत्महीनों की आत्मा है। यह जनता की अफीम है।’ मार्क्सेवाद ने अपने को विज्ञान बताया जिसके नियम अकाट्य होते हैं और जिन्हें कोई तोड़ नहीं सकता, लेकिन वह यूटोपिया ही साबित हुआ जिससे मनुष्य की दुखी आत्मा को शांति मिलती है। एशिया में नेपाल सबसे गरीब देश है और वहां की सरकार कम्युनिस्ट पार्टियों के हाथ में है।

 

भारत में मार्क्सवाद की क्या स्थिति है? क्या वह भारतीय संस्कृति की आत्मा के खिलाफ है? ऐसा कहना यह मानना होगा कि संस्कृति स्थिर होती है। एक बार जब वह बन जाती है तो भविष्य में भी वैसी ही बनी रहती है। तथ्य इसका समर्थन नहीं करते। देश में कल तक ब्राह्मणों का राज था। आज उन्हें कोसा जा रहा है। कल तक दलित चूं भी नहीं कर सकते थे और वही आज सड़कों पर उतरकर आंदोलन कर रहे हैं। लाखों या करोड़ों स्त्रियां घर से बाहर निकल कर नौकरी कर रही हैं। यही कारण है कि भारत में मार्क्सवाद एक बड़ी राजनीतिक धारा बन सका। आज वह मुरझाया हुआ दिखाई देता है, लेकिन इसलिए नहीं कि मार्क्सवाद में कोई दम नहीं है, बल्कि मार्क्स वादियों में कोई दम नहीं था। उनकी राजनीति को देख कर मार्क्सौ निश्चय ही आज शर्मिदा होते।

 

यही बात सोवियत संघ और चीन के बारे में कही जा सकती है। क्या कारण है कि सोवियत संघ में मार्क्स वाद एक खास समय तक ऊंचाई पर चढ़ता रहा, फिर एक बिंदु ऐसा आया जहां वह बम की तरह फट पड़ा? क्या कारण है कि चीन में मार्क्स वादी क्रांति हुई और जब उसने चीन को एक संपन्न देश बना दिया तो उसने मार्क्स वाद को छोड़कर पूंजीवाद की राह पकड़ ली? मेरी समझ से, ये दोनों घटनाएं अनिवार्य थीं। दोनों देशों में मार्क्‍सवाद नहीं था। उसका तानाशाही वाला स्वरूप ही था। तानाशाही में भी विकास होता है, परंतु एक सीमा के बाद वह अविकास में बदल जाता है। रूस ने प्रथमार्ध में प्रगति की, लेकिन कालांतर में उसने समता के सिद्धांत को पूरी तरह तिलांजलि दे दी। उसके आका संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह एक साम्राज्यवादी देश बनना चाहते थे जिसकी इजाजत रूस की अर्थव्यवस्था नहीं देती थी। साथ ही, मानव अधिकारों के अवमूल्यन से ज्ञान-विज्ञान और आविष्कार की मेधा में जो उछाल आता है, वह नहीं आ सका। चीन में केवल भौतिक विकास की तरफ ध्यान दिया गया, आत्मिक विकास की ओर नहीं। फलत: सभ्यता आगे बढ़ी, पर संस्कृति का संकुचन हुआ। ऐसी स्थिति में और अधिक उन्नति के लिए पूंजीवाद ही एकमात्र ऐसी विचारधारा है जो सहायता कर सकती थी। मार्क्सवाद की ही शिक्षा है कि मनुष्य भौतिक परिस्थितियों की उपज नहीं है और वह उनका नियामक भी है, लेकिन सत्ता में आने पर मार्क्सिवादी इस पर अमल नहीं कर सके। वे मार्क्सतवाद से डर गए। इसलिए एक सीमा के बाद उसे ‘पुनमरूषको भव’ होना ही था।

स्रोत: द्वारा राजकिशोर: दैनिक जागरण

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