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जोड़ों के रूप में आईं कई दिक्कतें
पिछले एक साल के दौरान देश के आर्थिक घटनाक्रम पर दो जोड़ों का दबदबा रहा। इनमें से पहला था- नवंबर 2016 की नोटबंदी और जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने के रूप में दोहरा झटका और दूसरे को तो हम दोहरी बैलेंस शीट के घाटे के रूप में जानते ही हैं। इसमें सरकारी बैंकों का फंसा हुआ कर्ज और देश के कारोबारी जगत का बकाया कर्ज आदि शामिल हैं। ये दोनों क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था के निवेश और उत्पादन को प्रभावित कर रहे हैं। जैसे-जैसे वर्ष का समापन करीब है, एक तीसरी तरह की जुड़वा समस्या उभर रही है, जिसे हम दोहरा घाटा कहते हैं। यह राजस्व लेखा और भुगतान संतुलन का घाटा है।
नोटबंदी के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। उस शुरुआती झटके के 13 महीने बाद, मुख्यधारा के अधिकांश विश्लेषक व्यापक तौर पर इस बात पर सहमत हैं कि उत्पादन, आय और रोजगार पर इसका जो असर हुआ है, उसने इसके कर अनुपालन, कम भ्रष्टाचार और लेनदेन के डिजिटलीकरण के दीर्घकालिक लाभों को पीछे छोड़ दिया है। अक्टूबर 2016 और जून 2017 के बीच जीडीपी वृद्घि दर सालाना 1-2 फीसदी तक कम हुई। हालांकि यह आधिकारिक आंकड़ों में पूरी तरह परिलक्षित नहीं हुई क्योंकि गैर कृषि अनौपचारिक/असंगठित क्षेत्र को समकालीन अनुमानों में ठीक तरह से आंका नहीं जाता। फिर भी नकदी आधारित होने के कारण यह क्षेत्र नोटबंदी से बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ। रोजगार को हुए नुकसान के बारे में आधिकारिक आंकड़े मौजूद नहीं हैं। हाल ही में देश की अर्थव्यवस्था की निगरानी के लिए गठित सर्वेक्षणों ने बताया कि भारी पैमाने पर रोजगारों का नुकसान हुआ है।
तमाम पत्रकार बताते हैं कि कानपुर (चमड़ा और कपड़ा), तिरुपुर (बुना हुआ कपड़ा), लुधियाना (कपड़ा वस्त्र और हॉजरी) औरभिवंडी (कपड़ा) आदि असंगठित क्षेत्र के गढ़ों पर जो असर हुआ वह यही बताता है कि इसने उत्पादन, आय और रोजगार पर 20 से 30फीसदी तक नकारात्मक असर डाला है और अब भी बरकरार है। वर्ष2017 में अब अर्थव्यवस्था का पुनर्नकदीकरण करीब-करीब पूरा होने को था और कुछ सुधार नजर भी आ रहा था कि तभी नए जीएसटी कानून ने झटका दे दिया। नई कर व्यवस्था की विभिन्न दरों,जटिल पंजीयन और अनुपालन प्रक्रिया, कमजोर प्रौद्योगिकी नेटवर्क और सॉफ्टवेयर तथा क्षेत्राधिकार की कमियों ने भी प्रभावित किया। ये सारी बातें असंगठित क्षेत्र की इकाइयों पर बहुत भरी पड़ीं क्योंकि उनको आठ महीने में दूसरे झटके का सामना करना पड़ा। यह सब असंगठित क्षेत्र की छोटी इकाइयों के लिए बहुत कष्टप्रद था।
हालांकि सरकार और जीएसटी परिषद बहुत सी समस्याओं का समाधान करने पर ध्यान दे रही हैं, लेकिन प्रमुख समस्याएं अब भी बरकरार हैं, विशेष रूप से निर्यातकों और वस्तु एवं सेवाओं के छोटे प्रदाताओं के लिए। निर्यातकों को रिफंड (जीएसटी में निर्यात पर शून्य शुल्क दर) में लंबी देरी से भारत का निर्यात के मोर्चे पर प्रदर्शन कमजोर पड़ा है। वह भी ऐसे समय, जब विश्व व्यापार और उत्पादन वर्ष 2008 के बाद सबसे तेजी से बढ़ रहे हैं। इस समय हाथ से निकलते बाजारों को फिर से हासिल करना आसान नहीं होगा, विशेष रूप से हमारे रुपये की ऊंची विनिमय दर के कारण।
लेकिन नोटबंदी और जीएसटी से आर्थिक गतिविधियां और लेनदेन ज्यादा संगठित हुए हैं। अगर हमारा श्रम बाजार परिस्थिति के अनुसार बदला और उसने रोजगार के असंगठित से संगठित क्षेत्र में जाने को प्रोत्साहन दिया तो यह बहुत अच्छा होगा। लेकिन हमारे यहां इसकी ठीक विपरीत स्थिति है। हमारे श्रम कानून और नियम दुनिया में सबसे ज्यादा जटिल और बोझिल हैं। वे संगठित क्षेत्र के नियोक्ताओं को नई नियुक्तियों में बहुत ज्यादा हतोत्साहित करते हैं। इसमें कोई अचंभा नहीं होना चाहिए कि श्रम बल में संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों का हिस्सा 20 फीसदी से भी कम है। इसलिए नोटबंदी और जीएसटी का लंबे समय तक बरकरार रहने वाला असर यह होगा किकम कुशल श्रमिक ज्यादा अनुपात में कम वेतन वाली नौकरियोंऔर अल्प-रोजगार की स्थिति में फंसेंगे।
इसके गंभीर सामाजिक और राजनीतिक नतीजे आएंगे। श्रम कानून में सुधारों की जरूरत इस समय किसी भी समय से अधिक है। बैलेंसशीट की दोहरी समस्या पिछले पांच वर्षों से भारत की बैंकिंग प्रणाली, कंपनियों में निवेश और पूरे आर्थिक प्रदर्शन को कमजोर कर रही है। बैलेंसशीट की दोहरी समस्या का मतलब कर्ज में दबी एवं मुश्किल दौर से गुजर रही कंपनियों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बैलेंस शीट में बढ़ते एनपीए से है। वर्ष 2015 के प्रारंभ में भारतीय रिजर्व बैंक के अपनी आस्ति गुणवत्ता समीक्षा व्यवस्था शुरू करने के बाद यह समस्या ज्यादा साफ दिखाई देने लगी है।
मार्च, 2017 तक बैंकों के कुल दिए हुए कर्ज में फंसा हुआ ऋण12 फीसदी से ज्यादा था। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का फंसा हुआ ऋण 15 फीसदी से अधिक था। इस बड़ी चुनौती से निपटने के लिएसरकार और आरबीआई ने पिछले 18 महीनों के दौरान बहुआयामी रणनीति शुरू की है। इसमें से एक ऋणशोधन एवं दिवालिया कानून बनाना है, जिसे हाल में एक अध्यादेश के जरिये और मजबूत बनाया गया है। इसके अलावा आरबीआई ने बड़े डिफॉल्टरों (एक दर्जन बड़े डिफॉल्टरों से शुरुआत) के खिलाफ दिवालिया प्रक्रिया शुरू करने के लिए राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण को कहा।
वहीं पहले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में नई पूंजी डालने के लिए2.11 लाख करोड़ रुपये (जीडीपी का 1.3 फीसदी) के भारी-भरकम पैकेज की घोषणा की गई है। हालांकि इसकी अभी पूरी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है। हालांकि यह देखना होगा कि सार्वजनिक बैंकों के इस सुधार के लिए क्या नियम एवं शर्तें हैं, लेकिनयह रणनीति लंबे समय से बरकरार समस्या का अच्छा समाधान है। अगर यह रणनीति ठीक से लागू की गई तो इससे बैंक ऋणों की वृद्धि में फिर से जान आ सकती है, कंपनियों में निवेश बढ़ सकता है,उत्पादक संपत्तियों का ज्यादा कुशल मालिकों एवं प्रबंधकों को हस्तांतरण में तेजी आ सकती है, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गुणवत्ता और कुशलता में सुधार आ सकता है और अगले दो साल में आर्थिक वृद्धि भी पटरी पर लौट सकती है।
हालांकि इसमें एक अच्छी खासी राजकोषीय लागत आएगी और इसे लागू करने में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन इस समस्या के लिए इतना बड़ा और इसी तरह का कुछ करना जरूरी है। चालू कैलेंडर वर्ष समाप्त होने जा रहा है, इसलिए ‘दोहरे घाटे‘की समस्या बढ़ती जा रही है। अक्टूबर में जीएसटी से राजस्व सितंबर के मुकाबले 9.5 फीसदी कम रहा है और इसमें आगे भी गिरावट आने के आसार हैं क्योंकि हाल में जीएसटी दरों में कटौती की घोषणा की गई है। आरबीआई भी सरकार को वित्त वर्ष 2017 में दी गई राशि से आधी राशि ही मुहैया करा रहा है और सरकार का खर्च ज्यादा है। इसे देखते हुए केंद्र के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य (जीडीपी का 3.2फीसदी) पर अत्यधिक दबाव रहेगा।
राजकोषीय घाटा अक्टूबर तक पहले ही पूरे वित्त वर्ष के बजट लक्ष्य का 96 फीसदी हो चुका है और ब्याज दरें मजबूत हुई हैं। अगर बैंक पुनर्पूंजीकरण बॉन्डों से जुड़े राजकोषीय दबाव को छोड़ भी दें तो राजकोषीय घाटे में जीडीपी की आधा फीसदी बढ़ोतरी के प्रबल आसार हैं। सरकार के राजस्व पर लगातार दबाव से संयुक्त रूप से घाटा जीडीपी का करीब 7 फीसदी रहने के आसार हैं। विदेश मोर्चे पर चालू खाते का घाटा 2017-18 की पहली तिमाही में बढ़कर जीडीपी का 2.4 फीसदी हो गया, जो 2016-17 में 0.7 फीसदी था। इसकी वजह वस्तु निर्यात में सुस्ती, आयात में बढ़ोतरी और सॉफ्टवेयर निर्यात में धीमापन आना है। वस्तु निर्यात 2013-14 के अपने सर्वोच्च स्तर से 10 फीसदी नीचे चल रहा है। वहीं तेल की ऊंची कीमतों से आयात बिल बढ़ रहा है। दिक्कतें पैदा करने वाले जोड़ों की तिकड़ी आर्थिक प्रबंधन और प्रदर्शन के लिए अगले साल भी चुनौती बनी रहेगी।
Source: Business Standard