News Analysis : सभ्यता का इंजन है अभिव्यक्ति की आजादी

 

हालिया रिलीज फिल्म पद्मावत और उसके निर्देशक संजय लीला भंसाली एवं अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का विरोध करने वाले आधुनिक दौर में भी एक तरह से अंधकार युग में जी रहे हैं। उनकी आंखें बंद हैं। उनके दिमाग सड़ गए हैं। अगर उन्होंने वास्तव में फिल्म देखी होती तो उनका विरोध समझ में भी आता। इसने ईरान के कट्टरपंथी अयातुल्ला खोमैनी की याद ताजा करा दी जिन्होंने मशहूर लेखक सलमान रुश्दी की किताब ‘ सैटेनिक वर्सेस’ का विरोध करते हुए रुश्दी का सिर कलम करने का फतवा जारी किया था। करणी सेना और क्षत्रिय महासभा ने भी उसी तर्ज पर भंसाली का सिर कलम करने और दीपिका की नाक काटने के एवज में करोड़ों रुपये देने का एलान किया। ऐसे लोगों के लिए जेल ही सबसे माकूल जगह हो सकती है, क्योंकि आधुनिक भारत में ऐसे दकियानूसी लोगों के लिए कोई जगह नहीं।

हद यह है कि तमाम बदनामी और फजीहत के बाद भी करणी सेना का एक धड़ा पद्मावत फिल्म के विरोध पर अड़ा है। हालांकि तमाम ऊहापोह और अदालती दखल के बावजूद फिल्म रिलीज तो हो गई, लेकिन यह मामला हमारे सामने कई अहम सवाल खड़े करता है। आखिर अंधकार युग के लोगों के लिए हमारे आधुनिक समाज में जगह क्यों होनी चाहिएसंजय लीला भंसाली को अपनी पसंद की फिल्म बनाने की आजादी क्यों नहीं मिलनी चाहिए? कोई हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक रग को क्यों नहीं छेड़ सकता या किसी को किसी का उपहास उड़ाने पर क्या प्रतिबंधअगर कोई फिल्मकार पैगंबर पर फिल्म बनाएगा तो मैं उसके पक्ष में भी आवाज बुलंद करूंगा। लोकतंत्र विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही समृद्ध होते हैं।

सिनेमैटोग्राफी कला भी विचार और अभिव्यक्ति की आजादी है। सृजन और नए विचारों की जननी के रूप में यह नई सभ्यता के जन्म देने में सहायक है। लेखक और फिल्मकार हमें समय-समय पर ङिांझोड़ते रहें, अन्यथा कोई समाज तरक्की नहीं कर पाएगा। वाक् स्वतंत्रता के बिना किसी भी सभ्यता की प्रगति एक तरह से रुक ही जाएगी। वर्ष 2013 में मुस्लिम संगठनों द्वारा किए जा रहे विरोध के बाद तमिलनाडु सरकार ने कमल हासन अभिनीत फिल्म विश्वरूपम को प्रतिबंधित कर दिया था। मुस्लिम समुदाय का एतराज इस पर था कि फिल्म से उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हो रही थीं। इस पर हासन को फिल्म से कुछ दृश्य हटाने पर मजबूर होना पड़ा था। अब 2018 में भंसाली को पद्मावत से कुछ दृश्यों को काटना-छांटना पड़ा। यह दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है कि एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को विश्व गुरु बनाने की कोशिश में जुटे हैं तो दूसरी ओर उनकी ही भारतीय जनता पार्टी ऐसे शरारती तत्वों के पक्ष में खड़ी है जो पद्मावत के विरोध की आड़ में हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसी जगहों पर बच्चों को निशाना बनाने से भी नहीं चूकते।

यह नहीं भूलना चाहिए कि इस किस्म के लोगों ने कानून अपने हाथ में लेकर दुनिया भर में भारत की छवि खराब की और यह सब फिल्म देखे बिना ही किया। अगर किसी की आंखें खुली हैं तो इसका यह अर्थ नहीं कि उसका दिमाग भी खुला हुआ है। जब कोई कलाकारफिल्मकारलेखककविनाटककारकाटरूनिस्ट या कोई अभिनेताहमारी आलोचना करता है, हमारी भावनाओं को आहत करता है या कुछ सवाल उठाता है तो इसके पीछे उसका मकसद हमें तार्किक रूप से सोचने और उन परंपरागत विचारों से हमारा पीछा छुड़ाने का होता है जो हमें तरक्की की सही राह पर आगे बढ़ने से रोकते हैं। जब कोई कलाकार हमारी आलोचना करता है तो वह नए विचारों को जन्म देता है।

नए विचार ही नई सभ्यता का सृजन करते हैं। ऐसे लेखक या फिल्मकार जिस समाज में रहते हैं उसकी आलोचना करते हैं और इस कारण अपनों में ही बाहरी बन जाते हैं। यदि उनकी आवाज खामोश कर दी जाए तो इंसानियत की तरक्की सीमित हो जाती है। वाक् स्वतंत्रता किसी शर्त से नहीं बंधी है। कई बार हालात ऐसे होते हैं कि जब पूरा समाज गलत और एक शख्स ही सही होता है। इतालवी खगोलशास्त्री गैलीलियो की ही मिसाल लें। जैसे आज करणी सेना के विवेकहीन समर्थक कर रहे हैं कुछ वैसा ही सत्रहवीं शताब्दी के यूरोप में हो रहा था। वहां चर्च ने पोलैंड के खगोलशास्त्री निकोलस कॉपरनिकस पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया था कि उन्होंने चर्च की मान्यता के उलट यह सिद्धांत दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रही है। तब आम धारणा यही थी कि सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं।

गैलीलियो ने अपने टेलीस्कोप का इस्तेमाल कर शोध किया और इस धारणा को खारिज कर दिया। 1632 में कॉपरनिकस की तरह उन्होंने भी यही दलील दी और अगले साल ही चर्च ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुना दी। कालांतर में गैलीलियो ही सही साबित हुए और चर्च गलत। नए आविष्कारों के लिए समाज और धर्म के नजरिये से इतर नए विचारों की दरकार होती है। विचारों की स्वतंत्रता ने ही व्यक्ति को आग, पहिया, जहाज, भाप ईंजन, वायुयान, मोबाइल फोन से लेकर इंटरनेट जैसी तमाम वस्तुओं के साथ ही लोकतंत्र, राजनीतिक दल और संविधान जैसी व्यवस्थाएं बनाने में सक्षम बनाया। वाक् स्वतंत्रता ने ही आधुनिक सभ्यता का निर्माण किया है। यह गैलीलियो जैसे विचारकों की सोच का ही परिणाम था कि मनुष्य मंगल और उससे आगे तक की थाह लेने में सफल हो पाया। पिछली कई सदियों से भारतीयों ने उपग्रह, गूगल या फेसबुक जैसी कोई क्रांतिकारी खोज नहीं की है। भारत को वाक् स्वतंत्रता की सख्त आवश्यकता है। यदि आप किसी को शारीरिक रूप से कोई क्षति नहीं पहुंचाते तो आप किसी को भी कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं। उदाहरण के तौर पर आप बंद कमरे में किसी के विषय में कुछ भी सोचने और कहने के लिए आजाद हैं।

वहां कोई नहीं सुनेगा, मगर वाक् स्वतंत्रता तभी प्रासंगिक होती है जब कोई आपका विरोध करता हो। जब कोई आपका विरोध करे तो किसी भी सूरत में आपकी वाक् स्वतंत्रता की रक्षा होनी चाहिए। यदि कोई किताब प्रतिबंधित है तो वह प्रतिबंधित वजह के कारण ही प्रकाशित होनी चाहिए। यही बात फिल्म और धार्मिक मामलों पर भी लागू होती है। हम वाक् स्वतंत्रता के लिए कोई सीमारेखा निर्धारित नहीं कर सकते विशेषकर तब जब कोई ऐसी रेखा खींचना चाहता हो। दुनिया आज वास्तव में एक वैश्विक नगर बन गई है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से हम एकदम अजनबियों के साथ भी संवाद करते हैं। अक्सर हमारे विचार उनसे मेल नहीं खाते और यौन अभिरुचियों से लेकर खान-पान की आदतों और पहनावे पर उनसे तकरार करते हैं। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि हर कोई निगरानी रखने के काम में जुट जाए। अगर किसी की बात से वाकई कोई ठेस पहुंचती है तो आप पुलिस में शिकायत दर्ज करा सकते हैं, लेकिन जान-माल को नुकसान पहुंचाने वाले निश्चित रूप से जेल में होने चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी सभ्यता का इंजन है। अब यह वक्त की जरूरत है कि देश के सभी राज्यों के शिक्षा बोर्ड पाठ्यपुस्तकों में वाक् स्वतंत्रता के विषय को भी शामिल करें।

स्रोत: द्वारा अवधेश सिंह राजपूत: दैनिक जागरण

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