News Analysis :विज्ञापन, समाज और कानून

आज बाजार में तमाम ऐसे उत्पाद उपलब्ध हैं जो मानकों पर खरे नहीं उतरतेऔर जो सेहत के अनुकूल नहीं हैंफिर भी धड़ल्ले के साथ बाजार में बिकते हैंक्योंकि उनका प्रचार-प्रसार कोई नामचीन हस्ती कर रही होती हैया फिर उन पर किसी ब्रांड का ठप्पा लगा होता है। नियमों को ताक पर रख कर ये वस्तुएं बेची जा रही हैंऔर अगर कोई वस्तु नियम के विरुद्ध पाई जाती हैतो कुछ समय बाद पुन: बाजार में लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने को आ पहुंचती है। बाजार में ढेरों उत्पाद हैंजो केवल नामचीन हस्तियों के नाम पर बिक रहे हैं। अच्छे-खासे पैकेज की खातिर ये लोकप्रिय सितारे भी संबंधित वस्तु की उपयोगिता या गुणवत्ता के प्रश्न को दरकिनार कर देते हैं और कंपनी से विज्ञापन का करार कर लेते हैं। इनमें विज्ञापन करने वाले व्यक्ति और कंपनी की चांदी रहती हैठगा महसूस करता है तो वह आम उपभोक्ता,जो अपने रोल-मॉडल को विज्ञापन में देख कर उक्त वस्तु खरीदता है।

बीते वर्षों में केरल में फास्ट फूड के बढ़ते दुष्परिणाम को देखते हुए राज्य सरकार द्वारा करों में वृद्धि किया जाना उचित फैसला थाक्योंकि दुनिया भर में मोटापा आदि बीमारियां इन्हीं कारणों से पनप रहीं हैंलेकिन क्या किसी कंपनी ने फास्ट फूड को खाने से होने वाली समस्याओं से अवगत करायानहीं। भ्रामक और झूठे विज्ञापन पाए जाने की स्थिति में सरकार विज्ञापन करने वाले व्यक्ति को भी जवाबदेह ठहराने की तैयारी में हैजो कि उपभोक्ताओं के लिए अच्छी खबर है।

एक विज्ञापन की पंच लाइन है: पहले इस्तेमाल करेंफिर विश्वास करें। क्या इस पंच लाइन को विज्ञापन करने वाली हस्तियां पहले अपने ऊपर लागू करती होंगीशायद शत-प्रतिशत वादे के साथ कोई कंपनी भी नहीं कह सकती कि उसके उत्पाद को उक्त सितारा उपयोग करता हैफिर उपभोक्ता वर्ग के लिए बाजार में विज्ञापन करता है। ऐसे में अगर सरकार भ्रामक विज्ञापनकर्ता पर जुर्माना और सजा तय करने वाला कानून बनाने के लिए इच्छुक दिख रही हैतो यह उपभोक्ता वर्ग के लिए अच्छी खबर हैक्योंकि उपभोक्ता वर्ग अपने चहेते फिल्मी सितारे या अन्य किसी हस्ती द्वारा प्रचार करने पर उस वस्तु को खरीद तो लेता हैलेकिन नुकसान होने की स्थिति में उस हस्ती की कोई जवाबदेही नहीं होती। इससे उपभोक्ता वर्ग अपने को ठगा हुआ महसूस करता है।

ऐसा भी नहीं कि विज्ञापन करने वाली हस्तियों में कोई उपभोक्ताओं के हितों के बारे में सोचता ही न हो। पुलेला गोपीचंद ने एक मशहूर शीतल पेय कंपनी का विज्ञापन करने से मना कर दियालेकिन ऐसे उदाहरण काफी विरल होते हैं। पुलेला गोपीचंद का उदाहरण वर्तमान पीढ़ी में उन नामचीन व्यक्तियों के लिए उदाहरण है जो कमाई के लिए कोई भी विज्ञापन करने को तैयार रहते हैं। उन्हें पुलेला गोपीचंद से सीख लेना चाहिएकि केवल अपना लाभ नहींउपभोक्ता का भी हित विचारणीय है। अगर कोई मशहूर शख्ससमाज के फायदे और नुकसान को समझे बगैरकिसी वस्तु का विज्ञापन करता है तो यह गलत है।

जब इन नामचीन हस्तियों को लोगों का अपार स्नेह मिलता हैतो उनका भी जनता के लिए कुछ कर्तव्य बनता है। गोपीचंद ने साफ शब्दों में यह कहते हुए विज्ञापन करने से मना कर दिया कि ये शीतल-पेय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। खराब या नुकसानदेह उत्पाद का विज्ञापन न करने की ऐसी ही हिम्मत अन्य हस्तियों को भी दिखानी चाहिए। पर ऐसा नहीं हो रहा है। इसीलिए सरकार को विज्ञापन की जवाबदेही तय करने वाला कानून बनाने की दिशा में सोचना पड़ रहा है।

उपभोक्ता संरक्षण विधेयक-2017 को कानून का दर्जा मिलते ही विज्ञापनकर्ता व्यक्ति उत्पादक संस्थान का हिस्सा बन जाएगा। अप्रैल में खाद्य उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण मामले की संसदीय समिति ने विज्ञापन को परिभाषित किया था। कानून मंत्रालय के वैधानिक विभाग ने विज्ञापन और विज्ञापनकर्ता को उत्पाद संस्थान का हिस्सा माना है। उपभोक्ता संरक्षण कानून की धारा 75 के तहत,भ्रामक विज्ञापन करने पर दो वर्ष की सजा और दस लाख रुपए का जुर्माना हो सकता है। दूसरी बार गलत विज्ञापन परोसने का हर्जाना काफी महंगा पड़ेगा। कानून के मुताबिक दोबारा गलत विज्ञापन प्रचारित करने पर पांच वर्ष की सजा और पचास लाख रुपए का जुर्माना होगा।

विज्ञापन करने वाली हस्तियां मोटी कमाई तक ही संबंधित वस्तु के विज्ञापन या कंपनी से रखती रही हैं। प्रस्तावित कानून बन जाने पर उन्हें विज्ञापन करने से पहले उत्पाद की विश्वसनीयता को सोलहो आने परखना पड़ेगा। अभी तक होता यह रहा है कि विज्ञापन कोई मशहूर हस्ती कर देती थीऔर उसके चाहने वाले आंख मूंद कर उस उत्पाद पर विश्वास कर लेते थे। यह रवायत बंद हो जाएगी। भ्रामक विज्ञापनों से बचाने के लिए कई बार अदालत ने भी दखल दियालेकिन उस पर अमल नहीं हो सका। ऐसे में अब जब उपभोक्ता संरक्षण कानून बनने की राह पर हैतो सभी दलों को समर्थन में आगे आना चाहिए। इस विधेयक में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के गठन की बात भी की गई हैजो सभी शिकायतों को सुनने के बाद कार्रवाई का हुक्म देगा। इससे उपभोक्ताओं का हित सिद्ध होगाजो आवश्यक भी था।

सेहत के लिए नुकसानदेह या भ्रामक विज्ञापनों के मद्देनजर यह सवाल उठता रहा है कि क्या उन हस्तियों को ऐसे विज्ञापन करने चाहिए? शीतल पेय पदार्थों के अलावा खाद्य पदार्थों और सौंदर्य-प्रसाधनों में भी हानिकारक चीजों की मिलावट होती हैजो सेहत के लिए खतरनाक होती हैं। गाहे-बगाहे शोध में भारत में बिकने वाली अधिकतर क्रीम को त्वचा के लिए हानिकारक बताया जाता रहा है। इसके साथ बात शीतल पेय पदार्थों की होतो उसमें हानिकारक रसायन होते हैंजो शरीर पर बुरा असर डालते हैं। न्यूयार्क विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मैरियन नेस्ले अपनी किताब सोडा-पॉलीटिक्स’ में लिखते हैं कि शीतल पेय कंपनियां दो स्तरों पर अपनी रणनीति बनाती हैं। पहले स्तर परसरकार की नीतियों को तोड़ना-मरोड़ना कि पेय पदार्थों से संबंधित मसले पर लोगों को पूरी तरह उलझाया जा सकेऔर दूसरे स्तर पर यहकि जानी-मानी हस्तियों को जोड़ कर अपने उत्पाद का प्रचार करना ताकि बच्चों और युवाओं में लालसा जगा कर बिक्री खूब बढ़ाई जा सके।

दुनिया की दो बड़ी शीतल पेय कंपनियों ने वर्ष 2014 में अकेले अमेरिका में ही विज्ञापनों पर 86.6 करोड़ डॉलर खर्च किया थाजो कि स्वास्थ्यवर्धक उत्पादों पर खर्च की गई राशि से चार गुना ज्यादा रकम थी। बात यहीं नहीं रुकती। बच्चों पर केंद्रित विज्ञापनों की संख्या तीस-चालीस फीसद बढ़ गई है। दुनिया के बाकी देशों के साथ-साथ भारत में भी इन पदार्थों के बढ़ते दुष्परिणाम को देखते हुए सरकार को व्यापक कदम उठाने होंगे। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन जितनी जल्द अमल में आए उतना अच्छा होगा।

स्रोत: द्वारा महेश तिवारी: जनसत्ता

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