वर्ष 2018 के द्विवार्षिक ‘एनवायरनमेंटल परफॉर्मेन्स इंडेक्स’ में भारत 180 देशों में 177वें स्थान पर रहा। दो वर्ष पहले हम 141वें स्थान पर थे। रिपोर्ट यह बताती है कि सरकार के प्रयास ठोस र्इंधन, कोयला और फसल अवशेष को जलाने से उत्पन्न वायु प्रदूषण को रोकने में नाकाफी रहे हैं। मोटर वाहनों द्वारा उत्सर्जन भी वायु को जहरीला बना रहा है। ‘इंस्टीच्यूट आफ हेल्थ मीट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन’ के 2017 के आंकड़े बताते हैं कि वायु प्रदूषण हमारे देश में प्रतिवर्ष करीब 16 लाख 40 चालीस हजार मौतों के लिए जिम्मेवार है। ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ की 2017 की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि देश में होने वाली असमय मौतों के मामलों में से तीस प्रतिशत वायु प्रदूषण के कारण होते हैं।
ये आंकड़े जितने भयावह हैं उससे भी ज्यादा चिंताजनक है इन्हें नकारने की कोशिश। पिछले साल प्रदूषण के बारे में हमारी सरकारों के नजरिये को समझने के लिए राजधानी दिल्ली का उदाहरण पर्याप्त होगा। पूरी सर्दी भर दिल्ली भयानक वायु प्रदूषण से ग्रस्त रही। पड़ोसी राज्यों में फसलों के अवशेष जलाना इसके लिए उत्तरदायी कारकों में से एक था। पर इस विषय में राज्यों के पारस्परिक संबंधों और केंद्र की भूमिका को लेकर जो खींचतान हुई वह हताश करने वाली है। समस्या के मूल स्वरूप को समझने और किसानों की समस्याओं का जमीनी स्तर पर व्यावहारिक समाधान तलाशने के स्थान पर एक विवाद खड़ा किया गया जिसका उद्देशय अपने प्रदेश के प्रति अपने राजनीतिक दल की चिंताओं और प्रतिबद्धताओं का भोंडा प्रदर्शन करना अधिक था।
मोटर वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का विकास करने की कोई दूरदर्शी योजना नहीं बनाई गई और आड इवन जैसे दिखाऊ उपाय अपनाने का प्रयास किया गया, जिनके बारे में यह भी सुनिश्चित नहीं है कि इनसे प्रदूषण कम होता है या नहीं। ओखला, गाजीपुर और भलस्वा लैंडफिल साइट्स पर कचरे के पहाड़, इनके कारण होने वाली दुर्घटनाएं और इनमें लगने वाली आग के द्वारा फैलता प्रदूषण हमारे ठोस कचरा प्रबंधन की असफलता को बयान करते हैं। स्थिति यह है कि दिल्ली में लोगों की संभावित आयु में से 6.3 वर्ष वायु प्रदूषण के कारण कम हो जाते हैं, जबकि पूरे देश के लिए यह आंकड़ा 3.4 वर्ष का है। दिल्ली के हर तीसरे बच्चे का फेफड़ा वायु प्रदूषण के कारण खराब हो चुका है। सुबह की सैर और खुले में खेले जाने वाले खेल भी अब दिल्ली के लोगों के लिए खतरनाक बन गए हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति कम भयावह नहीं है। देश के पैंतालीस प्रतिशत जिलों में निवास करने वाली पचास प्रतिशत आबादी पीएम 2.5 के घातक स्तर वाली वायु में सांस लेने के लिए विवश है। दिल्ली और अन्य महानगरों के प्रदूषण के बारे में तो देश और विश्व का मीडिया चर्चा करता रहता है लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा और मध्यप्रदेश के वनांचल- जहां कोयला खनन तथा बिजली उत्पादन व इस्पात उद्योग के कारण प्रदूषण चरम पर है- अचर्चित रह जाते हैं। इन क्षेत्रों में स्थानीय राजनीतिकों, अधिकारियों, माफियाओं और उद्योगपतियों का घातक गठजोड़ पर्यावरण मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन में लगा हुआ है। अनेक ऐसे दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद हैं कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट (एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट) में किस प्रकार हजारों हेक्टेयर में फैले वनों, वन्य पशुओं और ऐतिहासिक धरोहरों को गायब करने की सफल-असफल चेष्टा की गई है।
किस प्रकार पर्यावरणीय जन सुनवाइयों को एक प्रहसन में बदल दिया गया है यह भी किसी से छिपा नहीं है। इन उद्योगों में पर्यावरण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर किस प्रकार प्रदूषण नियंत्रक उपायों की अनदेखी की जाती है और किस प्रकार इलेक्ट्रोस्टेटिक प्रेसिपिटेटर्स को बंद रखा जाता है यह भी कई बार उजागर हो चुका है। पर ये मामले जितनी तेजी से उठते हैं उससे कहीं अधिक तेजी से दबा दिए जाते हैं। इन क्षेत्रों में निवास करने वाले निरीह ग्रामवासियों (जिनमें आदिवासियों की संख्या अधिक है) की कमजोर लड़ाई कुछ ईमानदार और कुछ संदिग्ध प्रतिबद्धता वाले गैरसरकारी संगठन लड़ रहे हैं, जिन्हें ‘व्यवस्था–विरोधी’ की संज्ञा देकर उद्योग समर्थक सरकारें प्रताड़ित भी करती रही हैं।
विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम) के साथ मिलकर दसवीं एनवायरनमेंटल परफॉर्मेन्स इंडेक्स रिपोर्ट तैयार करने वाले येल और कोलंबिया विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों के अनुसार, रिपोर्ट में चीन का 120वां स्थान और भारत का 177वां स्थान बढ़ते जनसंख्या-दबाव और तीव्र गति से विकास करने की लालसा के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर हमारा ध्यानाकर्षण करता है। लेकिन इन विशेषज्ञों के अनुसार, ब्राजील का 69वां स्थान यह दर्शाता है कि यदि पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण सरकारों के नीति निर्धारण और क्रियान्वयन की स्थायी और दीर्घकालिक प्राथमिकताओं में सम्मिलित हों तो उसके सुपरिणाम मिलते ही हैं। इन विशेषज्ञों की राय विकास के उस वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था आधारित मॉडल पर प्रश्नचिह्न नहीं उठाती जो अंतत: नवउपनिवेशवादी रणनीति का नवीनतम रूप है।
जिस विकास मॉडल को अधिकतर एशियाई देश अपना रहे हैं वह देशी और विदेशी उद्योगपतियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को बढ़ावा दे रहा हैजिसके फलस्वरूप इन देशों का भौतिक और सामाजिक पर्यावरण तेजी से नष्ट हो रहा है। पर्यावरण को होने वाली यह क्षति ऐसी नहीं है जिसकी भरपाई की जा सके। भूजल स्तर कई स्थानों पर चिंताजनक रूप से गिरा है। जंगलों की कटाई से हजारों साल में स्थिर होने वाला पारिस्थितिक संतुलन नष्ट हो गया है। वृक्षारोपण अपर्याप्त और अविचारित दोनों है, और इन दोषों को यदि नजरअंदाज कर दिया जाए तब भी इसके लाभदायक परिणाम वर्षों बाद ही मिल सकेंगे। एशियाई देशों में व्याप्त राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने पर्यावरण-नियमों के साथ खिलवाड़ करने का रास्ता खोल दिया है। इस विकास के फस्वरूप गिने-चुने लोगों के पास विपुल संपदा और संसाधनों का एकत्रीकरण हुआ है और बहुसंख्यक लोगों का जीवन बदतर हुआ है। यदि विकास का स्वरूप समावेशी होता तो पर्यावरण रक्षा और प्रदूषण नियंत्रण अपने आप प्राथमिकताओं के एजेंडे में सबसे ऊपर होते।
एनवायरनमेंटल परफॉर्मेन्स इंडेक्स पर्यावरण के प्रत्येक पहलू को बहुत व्यापक रूप से स्पर्श करता है। इसमें पचास प्रतिशत भार (वेटेज) पर्यावरणीय स्वास्थ्य (एनवायरनमेंटल हेल्थ) को दिया जाता है। इसके अंतर्गत तीन उपभाग होते हैं- स्वास्थ्य संबंधी प्रभाव, वायु की गुणवत्ता तथा जल एवं स्वच्छता। प्रत्येक को समान वेटेज दिया गया है। दूसरा भाग पारिस्थितिक तंत्र की जीवनी शक्ति (इकोसिस्टम वाईटेलिटी) से संबंधित होता है और इसे भी पचास प्रतिशत वेटेज दिया जाता है। इसके अंतर्गत छह उपभाग होते हैं जिन्हें अलग-अलग वेटेज दिया जाता है- जल संसाधन (पच्चीस प्रतिशत), कृषि एवं वन (प्रत्येक दस प्रतिशत), जैव विविधता एवं आवास (पच्चीस प्रतिशत), जलवायु एवं ऊर्जा(पच्चीस प्रतिशत) तथा मत्स्यपालन (पांच प्रतिशत)।
इतने व्यापक आकलन में भारत का लचर प्रदर्शन हमारी नीतियों और कार्यक्रमों पर प्रश्नचिह्न लगाता है। रिपोर्ट के अनुसार आय, पर्यावरण की बेहतरी के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि हम सुरक्षित पेयजल और आधुनिक स्वच्छता तकनीकों में निवेश करते हैं तो इसके सकारात्मक परिणाम तत्काल दिखाई देते हैं। पर रिपोर्ट इस बात की ओर भी हमारा ध्यान खींचती है कि समान आर्थिक दशाओं और आय वाले देशों में से कुछ पर्यावरण के क्षेत्र में अच्छा करते हैं और कुछ खराब। रिपोर्ट के अनुसार, नीतियों का सतर्क चयन व योजनाओं का सफल क्रियान्वयन अर्थात सुशासन अच्छा करने वाले देशों की सफलता के लिए उत्तरदायी है। रिपोर्ट यह दर्शाती है कि संधारणीय विकास या टिकाऊ विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) के लिए आर्थिक प्रगति आवश्यक है क्योंकि इससे पर्यावरणीय अधोसंरचना में निवेश के लिए संसाधन उत्पन्न होते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ नगरीकरण और औद्योगीकरण का कुशल प्रबंधन भी जरूरी है ताकि इनके कारण पैदा होने वाले प्रदूषण को रोका जा सके और पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान से बचाया जा सके।
स्रोत: द्वारा राजू पांडेय: जनसत्ता