Today’s Editorial (Hindi)
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने कभी कभार ही इस चिंता को स्वर दिए हैं कि बैंक ब्याज दरें इतनी नहीं हैं कि बचतकर्ताओं को मुद्रास्फीति से ऊपर कुछ वास्तविक प्रतिफल हासिल हो। इसके चलते और आवास बाजार के ढह जाने के कारण हाल के दिनों में म्युचुअल फंडों में बहुत अधिक पैसा लग रहा है। इस राशि का बड़ा हिस्सा डेट फंड में जा रहा है जिनका प्रतिफल बैंकों से बेहतर है। बहरहाल ऋण की बात करें तो हालात उलट हैं। बैंक ज्यादा ब्याज दर वसूल रहे हैं क्योंकि उनको अपनी भारी भरकम परिचालन लागत निकालनी है।
उदाहरण के लिए भारतीय स्टेट बैंक के तीन साल के ऋण की सबसे उत्कृष्ट दर है 8.1 फीसदी जबकि सबसे उच्च मूल्य के बॉन्ड पर भी तुलनात्मक प्रतिफल 7 फीसदी से ज्यादा नहीं है। जाहिर सी बात है जिन कंपनियों की बैलेंस शीट मजबूत है वे सस्ता ऋण लेने के लिए बैंक के बजाय बॉन्ड का रुख करेंगी। इससे बैंकों को ऐसी कंपनियों को भी ऋण देना होगा जिनकी क्रेडिट रेटिंग अच्छी नहीं हो। लिहाजा, बैंकों के ऋण की गुणवत्ता प्रभावित होगी। चूंकि फंसे हुए कर्ज का स्तर पहले ही ज्यादा है इसलिए यह एक नई चुनौती पेश करता है।
बैंकों की ऋण दर और बॉन्ड प्रतिफल के बीच का अंतर नया नहीं है लेकिन अतीत में यह मायने नहीं रखता था क्योंकि प्रतिबंधात्मक नियमों के चलते बॉन्ड बाजार का आकार सीमित था। अभी हाल ही में बॉन्ड बाजार के आकार में तेजी से इजाफा हुआ। गत सप्ताह आरबीआई की वेबसाइट पर जारी एक सूचना में कहा गया है कि यह बदलाव 2016-17 में आरंभ हुआ। ज्यादातर समय बैंकों के कुल फंड का आधे से अधिक वाणिज्यिक क्षेत्र को गया। परंतु वर्ष 2016-17 में बैंकों के फंड की हिस्सेदारी घटकर 38.4 फीसदी रह गई। जबकि इससे पिछले वर्ष यह 52.3 फीसदी थी। चालू वित्त वर्ष में भी इसमें बदलाव होता नहीं दिखता। क्योंकि अनेक बैंकों में पूंजी की कमी है। कमजोर बैंकों में अपने बेहतर ग्राहक गंवाने की समस्या ज्यादा है जबकि वे पहले ही ऋण की गुणवत्ता और ब्याज दर से जुड़ी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। बैंकिंग क्षेत्र में परिवर्तन अपरिहार्य है और वह होता दिख भी रहा है।
फंड जुटाने के गैर बैंकिंग स्रोतों का उभरना गलत नहीं है। निश्चित तौर पर कई सालों से यह आलोचना भी हो रही है कि देश की वित्तीय व्यवस्था बैंक केंद्रित है और बॉन्ड बाजार को विकसित करने की आवश्यकता है। अगर बैंक अपने बेहतरीन वाणिज्यिक उपभोक्ता गंवा बैठते हैं तो अपनी बैलेंस शीट सुधारने की जद्दोजहद में लगे बैंकों को अपेक्षाकृत सुरक्षित माने जाने वाले खुदरा ऋण मसलन आवास ऋण,कार ऋण आदि का रुख करना होगा। या फिर उनको कार्यशील पूंजी ऋण का रुख करना होगा जिन्हें भुगतान का समर्थन होता है। भारत में समस्या यह है कि दूसरी श्रेणी के वित्तीय उपायों यानी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) का अभाव रहा जो कि बैंकों की तुलना में लचीले ढंग से कारोबार कर सकती हैं। ऐसे में छोटे और मझोले क्षेत्रों के ऋण की पूर्ति मुश्किल हो जाती है।
नई परिस्थितियां एक समूह की ओर ध्यान आकृष्ट करती हैं। वे हैं क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां। कॉर्पोरेट बॉन्ड की उनकी रेटिंग ही बॉन्ड प्रतिफल को प्रभावित करती है। आमतौर पर बॉन्ड खरीदने वाले डेट म्युचुअल फंड बेहतर रेटिंग वाले बॉन्ड और कमजोर रेटिंग वाले उपायों को मिलाकर ही अपेक्षाकृत आकर्षक प्रतिफल दे पाते हैं। किसी भी अन्य सेल्समैन की तरह यहां भी उपभोक्ताओं के समक्ष मिश्रण का पूरा खुलासा किया भी जा सकता है और नहीं भी। जरूरी नहीं कि ग्राहक उसे पूरी तरह समझे। ऐसे में रेटिंग की कवायद की गुणवत्ता और अहम हो जाती है। आखिरकार, रेटिंग की नाकामी भी वर्ष 2008 में पश्चिम के वित्तीय संकट की अहम वजह रही थी।
भारत में ऐसी कंपनियों के मामले रहे हैं जो अच्छी रेटिंग होने के बावजूद बहुत तेजी से लडख़ड़ा गईं। हालांकि इनकी तादाद बहुत कम रही है लेकिन सच यही है कि अधिकांश खुदरा निवेशक जो बॉन्ड बाजार में पैसा लगाने की हड़बड़ी दिखा रहे हैं वे इस बात को नहीं जानते हैं कि बेहतर लाभ के साथ भारी जोखिम भी जुड़ा रहता है। बैंक, फंड प्रबंधक, एनबीएफसी, रेटिंग एजेंसियां और डेट फंड खरीदने वाले सभी को अपने कदमों पर निगाह रखनी होगी क्योंकि देश का वित्तीय तंत्र एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है।
स्रोत: द्वारा टी. एन. नाइनन: बिज़नेस स्टैण्डर्ड