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इतिहास यूं तो कहने-सुनने, पढ़ने-पढ़ाने का विषय है, किंतु जब वह कहने-सुनने, पढ़ने-पढ़ाने से निकलकर किसी समाज में तनाव और हिंसा का कारण बनने लगे तो सभी को चिंतित होना चाहिए। भारतीय समाज में पिछले दिनों लगातार इतिहास को केंद्र में रखकर या उसका उल्लेख करके विवाद, तनाव एवं हिंसा को भड़काया जा रहा है। यह तो अभी हाल की बात है कि पद्मावती के ऐतिहासिक चरित्र को लेकर अर्से तक विवाद बढ़ाया गया। फिल्म ‘पद्मावती के विरोध में धरना-प्रदर्शन के साथ तोड़फोड़ की घटनाएं होती रहीं। पद्मावती के ऐतिहासिक चरित्र के फिल्मीकरण को लेकर विवाद अभी पूरी तरह खत्म भी नही हुआ था कि पुणे के पास भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़क उठी।
इस हिंसा के विरोध में महाराष्ट्र बंद के दौरान भी अनेक हिंसक घटनाएं हुईं। एक समय महाराष्ट्र में जेम्स मेकलेन की शिवाजी पर केंद्रित पुस्तक को लेकर काफी तनाव फैला था। उनकी पुस्तक जलाई गई और भंडारके इंस्टीट्यूट पुणे के पुस्तकालय में आग लगाई गई। भीमा-कोरेगांव में विवाद एवं तनाव और फिर हिंसा का कारण बना दो सौ साल पहले हुए एक युद्ध का स्मरण। जब अंग्रेजों के खिलाफ देशी राजाओं का संघर्ष जारी था, तब एक जनवरी, 1818 को अंग्रेजी सेना एवं पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना में संघर्ष हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों की सेना ने पेशवा को परास्त कर दिया। अंग्रेजों ने इस जीत के उपलक्ष्य में भीमा-कोरेगांव में एक स्मारक स्थापित किया। कहते हैं कि अंग्रेजों की जिस सेना ने पेशवा को परास्त किया, उसमें महार जाति के सैनिक ज्यादा थे।
महाराष्ट्र के दलित विशेषकर महार इसे अपनी जीत मानते रहे है एवं प्रतिवर्ष एक जनवरी को भीमा-कोरेगांव में एकत्र होकर ‘शौर्य दिवस एवं ‘गर्व दिवस मनाते हैं। इसके विपरीत गैरदलित मराठा और कुछ ओबीसी सामाजिक समूह इसे अपने लिए ‘शर्म की घटना मानते हैं, क्योंकि इस घटना के वृतांत में उनकी ‘पराजय की कथा है, जिसे वे कहने-सुनने एवं सेलिब्रेट करने के विरुद्ध हैं। महाराष्ट्र में दलित आबादी लगभग 10.2 प्रतिशत है। वहां लगभग 59 दलित जातियां हैं। इनमें महार सबसे बड़ी दलित जाति है। वह महाराष्ट्र की पूरी दलित जनसंख्या का 57.5 प्रतिशत है। ब्रिटिश सेना में महार रेजिमेंट भी थी।
महार ब्रिटिश सेना में नौकरी करने और आजादी के बाद की जनतांत्रिक नीतियों से लाभान्वित होकर बोलने एवं प्रतिरोध करने की क्षमता से लैस हो चुके हैं। यह समूह अब ‘मूक समुदाय नहीं रहा, जो आंबेडकर द्वारा कभी विमर्श में लाए गए ‘मूक भारत का हिस्सा कहा जाता था। वस्तुत: इतिहास जब किताबों से बाहर निकलकर दृश्य, प्रदर्शन अथवा कर्मकांडीय आयोजनों का हिस्सा बन जाता है, तो ज्यादा प्रभावी हो जाता है। इतिहास की घटनाएं जब वृतांतों से बाहर आकर स्मारकों, नाटकों, उपन्यासों, फिल्मों या फिर ‘शौर्य दिवस जैसे आयोजनों का रूप ले लेती है तो वे दृश्यपरक होकर हमारी स्मृति का हिस्सा बनकर उन्हें बार-बार कुरेदने लगती हैं।
इतिहास की एक ही घटना एक साथ दोहरा परिणाम दे सकती है। एक घटना विशेष जहां एक समुदाय के लिए ‘गर्व का विषय हो सकती है, वहीं दूसरे समुदाय में ‘शर्म का भाव जगा सकती है। इतिहास जब अकादमिक ज्ञान से निकलकर ‘पब्लिक हिस्ट्री का रूप ले लेता है तो खतरे बढ़ जाते हैं। पब्लिक हिस्ट्री के रूप में इतिहास एक तरफ जहां हमें ‘गर्व एवं सामाजिक सशक्तीकरण प्रदान करने वाली शक्ति दिखता है, वहीं दूसरी तरफ हम उसे अत्यंत बलहीन मानते हुए उसे बचाने के लिए मरने-मिटने को तैयार हो जाते हैं। आखिर जो इतिहास हमें शक्तिवान बनाता है, वह इतना कमजोर कैसे हो सकता है कि यदि कोई उसकी आलोचना करे या उसका कोई और रूप सामने लाए तो हमें हिंसा का सहारा लेना पड़े?
ऐतिहासिक घटनाएं एवं वृतांत अटल सत्य की तरह नहीं होते, वे स्रोतों के माध्यम से विकसित होते हैं। स्रोत कई तरह के हो सकते हैं। कई बार एक ही ऐतिहासिक घटना नए स्रोतों के सामने आने के बाद किसी अन्य रूप में भी सामने आ सकती है। हमें इस नए रूप या यूं कहें कि ऐतिहासिक घटनाओं के बहुल वृतातों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होगा। हो सकता है कि आज जो स्रोत हमारे सामने उपलब्ध है, उससे कोई ऐतिहासिक चरित्र नायक दिखता हो, लेकिन नए स्रोत आने पर उसमें कुछ खलनायकत्व के भाव भी दिख सकते हैं। हमें यह मानना होगा कि नायक हर क्षण नायकत्व से ही लैस नही होता। उसमें कमजोरियां भी हो सकती हैं।
इतिहास के वृतांत जब सामाजिक एवं जातीय स्मृतियों का रूप ले लेते हैं तो वे जातीय गर्व का हिस्सा बन जाते हैं। जातियां उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाती हैं। ऐसे में इतिहास तथ्यों पर आधारित आलोचनात्मक ज्ञान विमर्श से निकलकर ‘मिथक का रूप ले लेता है। इसे ‘मायथो हिस्ट्री यानी मिथकीय इतिहास कहा जाता है। मिथकीय इतिहास की जरूरत प्राय: उन उपेक्षित समूहों को ज्यादा होती है, जो अपनी अस्मिता निर्मित करने की चाह में होते हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन आंदोलन ने पिछले 30 वर्षों में अत्यंत इनोवेटिव ढंग से अपने अनेक नायक खोजे एवं उनके आधार पर अस्मिता की राजनीति की।
महाराष्ट्र में भी दलित आंदोलन ने अपने मिथकीय इतिहास के आधार पर अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ी है। ‘अस्मिता की राजनीति में अनेक संभावनाएं हैं तो उसकी अपनी सीमाएं भी हैं। उसकी सबसे बड़ी सीमा यही है कि उसमें हमेशा कोई न कोई ‘बनाम होता है। दलित बनाम सवर्ण या दलित बनाम मराठा जैसे समीकरण के बिना अस्मिता की राजनीति अपनी धार खो देती है। यही ‘बनाम संघर्ष एवं हिंसा का भाव पैदा करता है। ‘बनाम की राजनीति उपेक्षित समूहों की अस्मिता निर्माण की प्रक्रिया के प्रारंभ में महत्वपूर्ण हो सकती है, किंतु धीरे-धीरे इसे तिरोहित होना होगा और समरस समाज बनाने की दिशा में अग्रसर होना होगा। ऐसे समरस समाज को डॉ. आंबेडकर ने ‘बूंद एवं समुद्र के मिलन के रुप में देखा था ।
नि:संदेह रोटी के साथ सामाजिक सम्मान की जरूरत होती है और सामाजिक सम्मान के लिए अस्मिता चाहिए। अस्मिता के लिए नायक एवं ‘मिथकीय इतिहास चाहिए, किंतु हमें यह भी मानना होगा कि ऐसा इतिहास सुनने-समझने, समझाने का ज्ञान है, न कि हिंसा भाव जगाने के लिए। अस्मिता जरूरी है, किंतु प्रश्न उठता है कि अस्मिता के बाद क्या? अस्मिता के बाद का अगला चरण विकास की चाह है,किंतु विकास की चाह के बाद पुन: जातीय अस्मिता के दौर में लौट आना कहीं न कहीं हमारे विकास की अवधारणा को फिर से समझने के लिए बाध्य कर रहा है। ऐसा माना जाता है कि विकास जब जनतांत्रिक अवसरों का समान बंटवारा एवं सबको सम्मान देने के वादे में सफल होने लगता है तो अस्मिता की राजनीति की जरूरत नहीं रह जाती। क्या विकास के हमारे प्रयासों में कोई कमी रह जा रही है? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना होगा। अगर वर्तमान जरूरी है और उसके जरिए भविष्य बनाना है तो अतीत के लिए इतनी हिंसा क्यों? ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न भारतीय समाज के समक्ष मुंह बाए खड़े हैं। हमें उनका जबाव देना होगा।
स्रोत: द्वारा बद्री नारायण: दैनिक जागरण