News Analysis : खामियों से मुक्त हो तीन तलाक का कानून

Today’s Editorial (Hindi)

संसद के बजट सत्र के दौरान तत्काल तीन तलाक के खिलाफ विधेयक पारित कराना केंद्र सरकार की प्राथमिकता में सबसे अहम माना जा रहा है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, दोनों ने इसके संकेत भी दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां एक साथ तीन तलाक के मुद्दे पर दलीय राजनीति से ऊपर उठकर सभी पार्टियों से इससे संबंधित विधेयक को पास करने की अपील की है वहीं राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी बजट सत्र में एक साथ तीन तलाक से जुड़े विधेयक के पास होने की उम्मीद जताई है। पिछले साल 22 अगस्त, 2017 को जब सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक करार दिया था तो उसके खिलाफ संघर्ष में शामिल औरतों की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे। शाहबानो के बाद तैयार हुई नई पीढ़ी की मुसलमान औरतों ने देश में जो एक क्रांतिकारी माहौल तैयार किया था उसी का यह नतीजा था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह महसूस किया गया कि सरकार को तत्काल तीन तलाक के खिलाफ कोई कानून भी लाना होगा। सरकार ने इसके लिए हामी भरी, लेकिन 18 दिसंबर को जब विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकसभा में मुस्लिम महिला विवाह अधिकारों का संरक्षण विधेयक, 2017 पेश किया तो एक मुख्तलिफ किस्म की गूंज सदन से होती हुई मुल्क की गलियों तक दोबारा पहुंची।

एक तरफ मीडिया में बहस छिड़ी तो दूसरी ओर मौलवियों के सुर और तीसरी तरफ आम आदमी की आवाज आपस में टकराने लगी। मीडिया में कहा जा रहा था कि यह बहुत बड़ी जीत है। इसे कांग्रेस और अन्य सियासी तंजीमों को फौरन समर्थन दे देना चाहिए। दूसरी ओर मौलवी अपनी अन्य दलीलों के साथ यह भी कह रहे थे कि तलाक-ए-बिद्दत को मान लो और तीन के बजाय सात साल की सजा दे दो।यह एक अलग राजनीति की ओर इशारा था। तीसरी बहस में वे लोग शामिल थे जो बिल से पूरी तरह सहमत न होते हुए भी कानून चाहते हैं। एक नजर इस बिल पर भी डालना जरूरी है। सात बिंदुओं पर आधारित यह विधेयक कहता है कि तीन तलाक बोलने वाले पति का अपराध संदेय और गैर जमानती होगा। इसका अर्थ है कि तीन तलाक बोलने वाले शौहर को पुलिस गिरफ्तार कर लेगी और उसे तीन साल तक की सजा दी जाएगी। औरत को पति से अपने और बच्चे के लिए खर्च लेने का अधिकार होगा।

यहां समझने वाली बात यह है कि जब पति जेल चला गया तो औरत और बच्चे का खर्च कौन देगा तथा किस तरह? बिल में यह भी साफ नहीं है कि औरत वह खर्च कैसे लेगी? हां, यह साफ है कि इस दौरान बच्चे की कस्टडी का अधिकार मां का ही होगा। विधेयक में सुलह-समझौता और मध्यस्थता की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती। तलाक-ए-बिद्दत को साबित करने की जिम्मेदारी भी औरत के ऊपर ही डाली गई है। पति का एक बार में तीन तलाक बोलना आपराधिक माना गया है, जबकि विवाह एक सिविल मामला है, आपराधिक नहीं। लगता है कि बिल बहुत ही जल्दबाजी में बनाया गया है। इसमें जो व्याख्या हर बिंदु पर लिखी होनी चाहिए वह नहीं है।

याद कीजिए 1984 में जब कुटुंब न्यायालय अधिनियम बना था तब उसका मकसद परिवार बचाना थान कि तोड़ना। इसीलिए न्यायालय में मध्यस्थता का प्रावधान भी किया गया ताकि दोनों पक्ष शांत माहौल में विवाद हल करने का प्रयास करें और परिवार को वापस बनाए रखा जाए जिससे बच्चे भी बर्बाद न हों। इस मामले में हमें दो ऐतिहासिक गलतियों से सबक जरूर लेना चाहिए। पहली, दहेज निषेध अधिनियम जिसकी धारा 498- और दूसरीमुस्लिम महिला विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण अधिनियम 1986 दोनों ही अधिनियमों का अनुभव अच्छा नहीं रहा। 498-ए दहेज के नाम पर न जाने कितने बेगुनाह लड़के, उनकी माताएं, बिन ब्याही बहनें, भाभियां, भाई जो उस शहर या गांव में भी नहीं रहते थे उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ता है।

उक्त अधिनियम का ज्यादा इस्तेमाल बदला लेने के लिए किया गया न कि इंसाफ पाने के लिए। दूसरी सच्चाई यह भी देखने में आई कि जो लड़के 498-ए के तहत जेल भेज दिए गए वे बाहर आने के बाद लड़की के लाख चाहने के बावजूद परिवार से नहीं जुड़ पाए। इसी तरह 1986 का अधिनियम भी हजारों कमियों से भरा रहा। मुस्लिम औरतों को वह मुआवजा कभी नहीं मिल पाया जिसके लिए अधिनियम बना था। खासतौर पर वंचित वर्ग की औरतों को। जाहिर है एक गलती कांग्रेस ने शाहबानो के वक्त पर 1986 अधिनियम लाकर की थी और दूसरी गलती भाजपा कर रही है। वह भी मुस्लिम औरतों को सुने बिना ही मुस्लिम महिला विवाह अधिकारों का संरक्षण विधेयक, 2017 ला रही है। आखिर हमारा मकसद क्या है? देश से तलाक-ए-बिद्दत को समाप्त करना। इसलिए हमें उन तरीकों पर भी विचार करना चाहिए जिससे तलाक-ए-बिद्दत समाप्त हो सकता है। जैसे कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ध्यान में रखते हुए सभी राज्यों में विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाया जाए और मुस्लिम औरतों की सुरक्षा के लिए तलाक के पंजीकरण को भी अनिवार्य कर दिया जाए।

30 दिन के अंदर पंजीकरण अनिवार्य हो। इससे तीन तलाक और बाल विवाह, दोनों पर रोक लगेगी। इसका प्रचार-प्रसार हो और आमजन तक सुलभ बनाने की योजना बने। उक्त पंजीकरण को सभी सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाए। ऐसा न करने वाले को किसी भी प्रकार की योजना का लाभ न मिले। विदेश जाने की आज्ञा भी न दी जाए। तलाक-ए-बिद्दत से तलाक नहीं हो सकता, निकाहनामा में इसका अनिवार्य प्रावधान किया जाए। तलाक-ए-बिद्दत को घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 में शामिल करके मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया जाए। 1939 मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम में तलाक-ए-बिद्दत को शामिल किया जाए। तलाक-ए-बिद्दत देने वाले पति को मध्यस्थता केंद्रों में लाया जाना अनिवार्य हो।

 

हर थाने में मध्यस्थता के लिए प्रशिक्षित काउंसलर मौजूद हों। तत्काल तीन तलाक रोकने के और भी तरीके हो सकते हैं। ध्यान रहे कि सती प्रथा के खिलाफ कानून बनने के बाद भी देश में सालों तक सती की घटनाएं सुनाई देती रहीं। बाल विवाह पर कानून है, फिर भी हर साल हजारों बाल विवाह हो रहे हैं। द्विविवाह पर भी कानून है, लेकिन वह असंदेय अपराध है और जमानती है। कानूनों में ऐसे तमाम सुराख हैं। ऐसे में सजा का प्रावधान किसी बड़े बदलाव का संकेत नहीं है। सत्तारूढ़ दल की यह जिम्मेदारी है कि वह तीन तलाक पर एक बेहतरीन कानून बनाए जो औरतों को इंसाफ दे। अभी जो पहल हो रही है उससे तो औरत फिर हाशिये पर धकेली जा रही है। उसे कुछ हासिल होता नजर नहीं आ रहा। जिसकी बेहतरी के लिए कानून बनाने की बात थी उसकी बेहतरी शामिल तो हो।

 

स्रोत: द्वारा नाईश हसन: दैनिक जागरण

 

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