News Analysis : हमारे दौर में मार्क्स की अहमियत

हमारे वक्त के संभवत: सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दार्शनिक कार्ल मार्क्स की 200 वीं वर्षगांठ मई महीने थी। ऐसे वक्त में जबकि पूंजीवाद न केवल यूरोप में बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी डगमगाता नजर आ रहा है तो यह देखना उचित होगा कि हम पूंजीवाद के विकास को लेकर मार्क्स के सिद्घांतों से क्या कुछ सीख पाते हैं।  मार्क्स ने पूंजीवाद के गणित को सही तरीके से समझा था और कम्युनिस्ट घोषणापत्र में उन्होंने इसकी ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित भी किया था। उन्होंने पूंजीवाद की निरंतर नवाचार की कोशिश के बारे में लिखा और कहा कि उत्पादन को लेकर निरंतर क्रांतिकारी तरीके अपनाने, तमाम सामाजिक परिस्थितियों को बाधित करने तथा निरंतर अनिश्चितता अैर विरोध के मामले में इसने तमाम पुराने बुर्जुआ दौर को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने वैश्वीकरण की पहचान कर ली थी।

 

हालांकि इसके आगमन में उनके अनुमान से अधिक वक्त लगा। उन्होंने कहा था कि पूंजीवाद हर जगह घर कर जाएगा और हर तरह के संपर्क कायम करेगा। उन्होंने कहा था कि उद्योगों के लिए कच्चा माल स्थानीय नहीं रह जाएगा बल्कि वह दूरदराज इलाकों से लाया जाएगा। ऐसे उद्योग होंगे जिनके उत्पाद केवल स्वदेश में बल्कि विदेशों में भी इस्तेमाल किए जाएंगे। इस तरह उत्पादन और खपत के मामले में दुनिया के हर देश का सार्वत्रिक चरित्र होगा। उन्होंने पर्यावरण के महत्त्व को पहचानते हुए अपनी विश्व प्रसिद्घ कृति दास कैपिटल (हिंदी में पूंजी) में लिखा, ‘श्रम ही भौतिक संपदा का इकलौता स्रोत नहीं है। जैसा कि विलियम पेट्टी कहते हैं श्रम भौतिक संपदा का पिता है परंतु पृथ्वी उसकी मां है।’

 

मार्क्स को पूंजीवादी आर्थिक तंत्र की उतनी ही समझ थी जितनी कि किसी अन्य समकालीन अर्थशास्त्री को। परंतु अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों से अलग उनकी रुचि आर्थिक तंत्र को बेहतर चलाने के तरीके तलाशने के बजाय उसे बदलने में थी। इसी बात से इतना मूल्यवान योगदान कर सके। पूंजीवाद के उद्भव को लेकर क्रिटिक ऑफ पॉलिटिकल इकनॉमी में वह लिखते हैं, ‘विकास के एक खास चरण में, समाज की भौतिक उत्पादक ताकतों और उत्पादन के मौजूदा संबंधों के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है। दूसरे शब्दों में यह संघर्ष उन संपत्ति संबंधों से होता है जिनके ढांचे में वे अब तक संचालित हो रहे थे। ये संबंध उत्पादक ताकतों के विकास के स्वरूप से उनकी राह का रोड़ा बन जाते हैं। इसके बाद सामाजिक क्रांति के युग की शुरुआत होती है।

 

आर्थिक बुनियाद में आने वाला बदलाव आज नहीं तो कल संपूर्ण ढांचे में बदलाव की वजह बनता है। मार्क्स का यह निर्धारण यांत्रिक नहीं था। उनका कहना था कि बदलाव वर्ग संघर्ष से आएगा और सर्वहारा उसका नेतृत्व करेगा। वह समझ गए थे कि जिनका शोषण किया जा रहा है वे निष्क्रिय बने रहेंगे क्योंकि वे अवसर की समानता और चयन की आजादी के भ्रम में अपना जीवन बिताएंगे। अब जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान भी इसमें शामिल हो गई हैं और एक भ्रामक चेतना का निर्माण कर रही हैं। यह भ्रामक चेतना कब और कैसे समाप्त होगी और वंचित तथा पीडि़त वर्ग में अन्याय की जड़ों को लेकर समझ कब विकसित होगी यह एक खुला प्रश्न है। परंतु मार्क्स ने यह भी कहा कि बदलाव का समय पूरी परिपक्वता के बाद आएगा। उन्होंने कहा, ‘कोई भी सामाजिक व्यवस्था तब तक नष्ट नहीं हुई जब तक कि उसकी जरूरत पूरी करने वाली सभी उत्पादक शक्तियां पूरी तरह विकसित नहीं हो गई हों और वह तब तक पुरानी व्यवस्थाओं का स्थान नहीं लेती जब तक कि पुराने समाज के ढांचे में उनके अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियां तैयार नहीं हुई हों।

 

क्या पूंजीवाद की क्षमता अब समाप्त हो गई है? तीन प्रारंभिक औद्योगिक क्रांतियों में ऐसा नहीं हुआ और पूंजीवाद बचा रहा। बल्कि वह फला-फूला और दुनिया भर में फैला। यह उन देशों में भी फैला जो मार्क्सवादी विचारधारा के थे। परंतु अब चौथी औद्योगिक क्रांति आकार ले रही है। अन्य चीजों के अलावा नई सिंथेटिक सामग्री, 3डी प्रिटिंग जैसे मुद्रण के नए तरीके, कृत्रिम बुद्घिमता, स्वचालन और रोबोटिक्स आदि सामने आ रहे हैं। मार्क्सवादी शैली में कहा जाए तो जब उत्पादन का नया तरीका सामने आता है तो निजी उद्यम के पूंजीवाद के संस्थापक सिद्घांतों से एक तरह की दूरी बनती है और कई वजहों से एक नए तरह के उत्पादन संबंध की मांग उभरती है।

 

पहली बात, पूंजी और श्रमिकों के बीच की पारस्परिक निर्भरता इस वजह से टूटी है क्योंकि मशीनों ने बहुत बड़े पैमाने पर श्रमिकों का स्थान लिया। यह प्रतिस्थापन अतीत में भी हुआ है और मार्क्स ने कहा था, ‘मशीनें पूंजीवाद द्वारा तैनात वे हथियार हैं जो विशिष्ट श्रम के विद्रोह को दबाने का काम करते हैं।’ अब जिस पैमाने पर ढांचागत बेरोजगारी देखने को मिल रही है वह उत्पादन के नए माध्यमों की बदौलत है। इससे पूंजी के लिए मांग की कमी की चुनौती उत्पन्न होती है और समान अवसर का वह भ्रम भी सीमित होता है जो पूंजीवादी समाज में लोगों को सुसुप्त रखता है।

 

दूसरा, नई ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था आय को पूंजी और श्रम से दूर उन लोगों के पास ले जाती है जो ज्ञान तैयार करते हैं और उसके स्वामी हैं। चौथी औद्योगिक क्रांति इसी पर निर्भर है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अब तक शिक्षा, शोध और बौद्घिक संपदा को ठीक ढंग से संभालने वाला तंत्र नहीं विकसित कर सकी है। बौद्घिक संपदा तो तेजी से पूंजीवाद विरोधी बन रही है।

 

तीसरा, भुगतान और विपणन को डिजिटलीकृत करने के चलते इंटरनेट अर्थव्यवस्था के तेजी से विकसित होने की संभावना है। इससे कॉर्पोरेट शक्ति का संघटन होगा। इस मार्ग में बाधा केवल नए कारोबारी हैं। बहरहाल इस व्यवस्था में ताकत नवाचारियों से फाइनैंस करने वालों की ओर स्थानांतरित हो सकती है। चौथी बात, यह नई अर्थव्यवस्था स्वाभाविक तौर पर वैश्विक रुझान रखती है। यह बात पूंजीवाद के विकास संबंधी मार्क्स के विचार के अनुरूप ही है। बहरहाल, प्रतिस्पर्धा को संभालने और कॉर्पोरेट प्रशासन के लिए जैसे संस्थानों की आवश्यकता है वे नजर नहीं आ रहे। बिना नियमन का पूंजीवाद स्थायी नहीं हो सकता।

 

इन तमाम बातों से यह संभावना पैदा होती है कि लोग मौजूदा आर्थिक तंत्र के पीछे के तर्क पर सवाल करेंगे और कर्मचारियों के स्वामित्व जैसे विकल्पों के बारे में बात करेंगे। सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों में कर्मचारियों की हिस्सेदारी देखने को मिल भी रही है। सार्वभौमिक मूलभूत आय जैसे उपायों की बदौलत पात्रता को रोजगार से अलग करना हमें उस मानवतावादी समाज के करीब ला सकता है जिसका जिक्र मार्क्स ने किया था। उन्होंने कहा था कि पुराने वर्गीय बुर्जुआ समाज की जगह हमें एक ऐसी व्यवस्था कायम करनी चाहिए जिसमें विकास का एक ही पैमाना हो, प्रत्येक का विकास।

स्रोत: द्वारा नितिन देसाई: बिज़नेस स्टैण्डर्ड

 

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